वह नील गगन का चाँद उतर धरती पर आएगा
तुम आज धरा के गीतों को फिर से मुस्काने दो।
वे गीत कि जिनसे जेठ दुपहरी भी थर्राती है
वे गीत कि जिनमें बूँद पसीने की बल खाती है।
सन-सन चलती पछियाँव ठीक माथे का सूरज भी
झुक जाता, जिसमें माटी की देवी मुस्काती है|
शत-शत चातक की प्यास बुझेगी कन-कन में|
तुम एक बार फिर से स्वाती का मोल लगाने दो।
वह नील गगन... ।
अमराई में काली कोयल की कूक आज भी है
पिछली भूलों उन चोटों की वह हूक आज भी है।
क्षण भर में जिसने भस्म वारसाई का वैभव
जर्जर पसली की साँसों में वह फूँक आज भी है।
घट-घट से बरबस फूट पड़ेंगे कोटि-कोटि कुंभज
तुम एक बार पंछी को सागर तट तक जाने दो।
वह नील गगन का चाँद उतर धरती पर आएगा
तुम आज धरा के गीतों को फिर से मुस्काने दो।